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मंगलवार, 6 जून 2017

विश्व पर्यावरण दिवस पर ...........

विश्व पर्यावरण दिवस पर- बीज से वृक्ष का सफर ...................... जर्जर ईट की दीवार के बीच मिट्टी में दबा हुआ वो बीज हल्का-हल्का मुस्करा रहा था । यकायक नजर पड़ी मैनें बीज को मिट्टी से दबा दिया इस प्रत्याशा में कि बीज की समग्र जीवन-शक्ति अपने वंश-विस्तार में संलग्न होती है। । फिर कुछ दिनों बाद देखा बीज में धानी रंग की नई कपांेलें आ गई,बिल्कुल नयी,नवजात शिशु जैसी लालिमा लिये,छोटी-छोटी सुन्दर,कोमल और चंचल पत्ती ठीक वैसी जैसी शिशु के हाथ पैर,आकाश की और उन्मुख होती उसकी नई नवली स्कंध,अवरोह और शाखाओं को देखना अपने आप में अभूतपर्व अनुभव था, में जब भी लघु शंका के लिये घर की बाड़ी में जाता उसे अवश्य देखता दरअसल नन्हा सा यह पौधे मेरे कच्चे मकान के पीछे वाली दीवार में टंगा अपने अस्तित्व को खोज रहा था । कई बार मन हुआ कि दीवार से इसे हटा दूं, ये जर्जर दीवार को खोखला कर देगा पर हर बार चूक हुई और दीवार पर बीज पीपल के पौधे की शक्ल में तब्दील हो गया। ये बात 1995 को होगी,मैनें दीवार से पौधे को सावधानीपूर्वक जड़ सहित उखाडा और घर के पीछे लगा दिया। पौधे में वृद्धि लगातार जारी थी पर 5 साल बाद जब कच्चे घर को तोड़कर पक्का बनाने की जरूरत महसूस हुई तो इस पौधे का अस्तित्व फिर संकट मैं था । अब पौधे को फिर हटाना पड़ा इस बार मैनें पीपल की छांव की लालसा में पौधे को उखाड़ कर स्कूल में पुराने प्रयोगशाला भवन के पास विस्थापित किया। बेहतर लालन पोषण से पौधा फिर मुस्कराने लगा और धीरे-धीरे फिर बढ़ने लगा । करीब 6 साल तक प्रयोगशाला भवन के पास लगा रहा परन्तु जब स्कूल के नये भवन निर्माण होने लगा तो फिर इस पौधे के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे, फिर ठेकेदार की आरी इस पर चलनी था,अबकी बार इस का बचना नामुकिन था। पर मेरी जिद इस को बचना था । मैं आशंकित था कि अबकी बार पेड़ नही बचेगा। दो दिन की मशक्कत के बाद मैने जब इसके चारों तरफ खुदाई कराकर इसको जड़ सहित निकाल कर पानी की टंकी के पास विस्थापित किया तो आशंकित था कि क्या अब ये फिर से मुस्करा पायेगा? पर शायद मेरी इच्छा शक्ति से प्रबल उसके जीने की लालसा थी । आज 22 बरस के बाद वो एक विशाल वट वृक्ष की ओर उन्मुख है.. इस देववृक्ष के सात्विक प्रभाव के स्पर्श से सचमुच अन्तः चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। उसको देखकर उतनी ही खुशी होती है जितनी ‘‘राम’’ को बढ़ता हुआ देखकर होती है। वैसे भी भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णतःमूर्तिमान स्वरूप है। भगवान कृष्ण कहते हैं- ‘‘समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ।’’ स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। स्कूल के मित्र कहते है कि तुमने पीपल का पेड लगाकर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य प्राप्त कर लिया। जिन्होने अश्वमेध यज्ञ किया उन्हें पुण्य मिला या नहीं मुझे नही मालूम पर मैनें इस पुण्य को महसूस किया हूॅं । बीज से एक स्वस्थ छायादार पेड़ की यह कहानी दरअसल जीत और जद्दोजेहद की एक मिसाल है,इस कारण आप के साथ शेयर कर रहा हूॅं। विज्ञान की दृष्टि में भी पीपल सबसे अधिक प्राणवायु आॅक्सीजन देने वाला पेड़ है । विश्व पर्यावरण दिवस पर एक पेड़ अवश्य लगावें ।। अनिल नेमा 05 जून 2017

रविवार, 21 मई 2017

आसक्ति और प्रेम ......

आज रविवार है,फुरसत में सोचा कुछ लिखा जाये वो भी परम्परागत विषय से भिन्न,मन की बात तो विषय था आसक्ति और प्रेम ......
परिपाटी ये है कि दो लोगों का पहले परिचय होता है,परिचय धीरे-धीरे घनिष्ठता में तब्दील होता है,फिर सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है,एक अपनापन के भाव उमड़ते है और फिर प्रेम प्रस्फुटित होता है, ऐसा सुना है और अनुभव से महसूस किया है । पर किसी से मिलते है उस से लगाव हो जायें, उस से बात करने का,उस को देखने का,उस से मिलने का मन होने लगे तो क्या ये प्रेम है........ नहीं दरअसल ये आसक्ति या मोह है । आसक्ति का अर्थ है किसी वस्तु के प्रति विशेष रुचि होना। आसक्ति के कारण हम विषयों के अधीन हो जाते हैं। एक दीवानापन,एक मोह,एक सूफियाना अंदाज आसक्ति का पर्याय है। जब हमें किसी से आसक्ति हो जाती है,तब हम उसके बिना रह नहीं पाते है। आसक्ति में अधिकार भाव रहता है। वह व्यक्ति हमारी चेतना का,व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है जैसे प्रेमी,अपनी प्रेमिका से आसक्ति का भाव रखता है । मेरी समझ में रूकमणी का कृष्ण के साथ प्रेम है और राधा की कृष्ण के प्रति आसक्ति है। पति और पत्नी के बीच प्रेम होता है,आसक्ति की सम्भावना थोड़ी कम ही होती हैै पर एक प्रेमी और प्रेमिका के बीच आसक्ति की सम्भावना अधिक होती है संभव है ये आसक्ति बाद में प्रेम में तब्दील हो जायें । हम अक्सर आसक्ति को प्रेम समझ बैठते है,जबकि सच्चाई यह है कि आसक्ति अलग है और प्रेम अलग ........प्रेम अनेक भावनाओं का, रवैयों का मिश्रण है जो पारस्परिक स्नेह से लेकर खुशी की ओर विस्तारित है। ये एक मजबूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है। आसक्ति से प्रेम उदित हो सकता है और प्रेम में आसक्ति का जन्म भी हो जाता है फिर भिन्नता क्या है आसक्ति और प्रेम में ......कठिन विषय है किन्तु गीता में बार बार कहा गया है -अनासक्त होकर कर्म करें। ‘‘तस्मात असक्तः सततं।। ’’ सदैव आसक्ति से मुक्त रहो। ‘‘संगं त्यक्त्वा धनंजय’’ हे धनंजय! आसक्ति का त्याग कर। ‘‘कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगं असक्तः स विशिष्यते ’’ कर्मेन्द्रियों में आसक्ति ना होना ही कर्म को कर्मयोग बनाता है। ‘‘मुक्तसंगः’’ आसक्ति से जो मुक्त है वह सात्विक कर्ता है। आदि अनेक स्थानों पर इस आसक्ति से दूूर रहने की सलाह दी गई है। पर मन में सदा ये प्रश्न आता है क्या अनासक्त होना सम्भव है। मनुष्य है तो भावनायें भी होंगी ही। कठिन विषय का चुनाव कर लिया आज ............................. अनिल नेमा